सारण : कहां गये वो दिन…
छपरा को ‘सारण’के नाम से संबोधित करने से इस बात का बोध होता है कि पुराने छपरा की बात हो रही है,यानी कि छपरा, सीवान और गोपालगंज. सारण जिला था जो सीवान और गोपालगंज अनुमंडल में बंटा हुआ था. सारण की भौगोलिक स्थिति त्रिभुजाकार है, जिसे एक तरफ से गंडक ने और दूसरी तरफ से सरयू ने अपनी शीतलता प्रदान कर रखी है, तो तीसरी तरफ है उत्तर प्रदेश की सीमा. सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक तीनों दृष्टिïकोणों से सारण प्रयोगस्थली के रूप में विख्यात रहा है. अब यह प्रयोगधर्मियों के स्थली में बाहुबली और धनबली अपना प्रभुत्व जमाते जा रहे हैं. इतना ही नहीं यहां अब जातियों के बीच का सद्भाव भी समाप्त होता जा रहा है, जिसके लिए यह कभी मशहूर हुआ करता था.अगर सारण से टूट कर बने तीनों जिलों के तमाम पहलुओं पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्टï है कि इतिहास में जो इसकी छवि थी, वह अब नहीं रही. सारण में शुरू से ही हर क्षेत्र की प्रतिभा पनपती-उभरती रही है, जिसे उसने अपने गोद में पाला है, जिनसे दुनिया रौशन होती रही है. अपनी संस्कृति की पहचान से इसने दुनिया को चकाचौंध किया है, मगर उसके बाद भी इसका सम्यक विकास नहीं हो पाया और यह वहीं का वहीं रह गया, जहां से अपनी यात्रा शुरू की थी.भोजपुरी के शेक्सपीयर के नाम से लब्ध प्रतिष्ठï भिखारी ठाकुर का जन्म सारण के कुतुबपुर दियारा में हुआ था. कला के क्षेत्र में अपने जलवा का लोहा मनवाने वाले भिखारी ठाकुर का गांव आज भी दियारा की दर्द भरी दास्तान को कह रही है. किसी गांव के नाम में अगर दियारा शब्द लगा दिया जाता है, तो सारण के साथ बिहार के अन्य क्षेत्रों में इसी बात से जाना जाता है कि जीवन की मूलभुत सुविधाओं से महरूम गांव. और यह हालत कुतुबपुर दियारा की है. राजनैतिक क्षेत्र में सारण ने कई नाम दिए. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर जय प्रकाश नारायण तक का नाम सारण से जुटता रहा है. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र बाबू का जन्म सीवान जिले के जीरादेई नामक गांव में हुआ. प्रेरणास्रोत स्थल के रूप में विकसित होने वाले जीरादेई में विकास के नाम पर कुछ नहीं है. कहने के लिए एक उच्च विद्याालय और एक पार्क भी है, लेकिन वह भी खस्ताहाल. राजेन्द्र बाबू के गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर बने एक रेलवे स्टेशन पर सवारी गाडिय़ों एवं कुछेक एक्सप्रेस ट्रेनों को छोड़ कर दूसरी किसी भी गाड़ी का ठहराव नहीं होता. देश में अपनी प्रतिभा का डंका बजवाने वाले राजेन्द्र बाबू का पैतृक गांव जीरादेई गुमनामी की पीड़ा झेलने को विवश है. हालांकि यह बात अब अलग है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बनने के बाद इस गांव का विकास प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के माध्यम से होनी है।
कौमी एकता के प्रतीक मौलाना मजहरूल हक भी सारण की ही देन हैं. इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब राजेन्द्र बाबू का पैतृक गांव बदहाल है, तो हक साहब के गांव की मिजाजपुर्सी कौन करेगा. इनके नाम पर छपरा में महज एक एकता भवन है, जो जर्जर है.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का गांव सिताब दियारा आज अपने अस्तित्व की बाट जोह रहा है. सिताब दियारा घाघरा नदी के कटाव की चपेट में है. इनके नाम पर छपरा में जयप्रकाश विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है. सबसे मजेदार बात सारण से ये जुड़ा है कि प्रतिभा के धनी राजेन्द्र बाबू के गांव से महज दो किलोमीटर की दूरी पर रूइया बंगरा गांव में नटवर लाल का पैतृक गांव है, जिसने पूरी दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचा कर रख दिया. यह ठीक है कि उसने अपनी मेधा का इ्रस्तेमाल रचनात्मक काम करने में नहीं किया, लेकिन इससे उसकी प्रतिभा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है. और शायद यही कारण है कि रूइया बंगरा की चर्चा करना कोई नहीं चाहता, लेकिन क्या राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक के गांवों को भी उतनी अहमियत दी गई,जितनी की वो हकदार थी. सारण ने बिहार को आधा दर्जन मुख्यमंत्री दिये हैं, जिसमें स्व. महामाया प्रसाद सिन्हा, दारोगा प्रसाद राय, अब्दुल गफूर, राम सुंदर दास, लालू प्रसाद और राबड़ी देवी शामिल हैं. विकास के नाम पर लालू प्र्रसाद यादव और राबड़ी देवी को छोड़ दिया जाए तो किसी के भी पैतृक गांव या चुनावी क्षेत्र में अब तक विकास नही हुआ है. अगर विकास की बात कि जाए तो सीवान में दारोगा राय के नाम पर महाविद्यालय और अब्दुल गफूर के नाम पर कन्या विद्याालय नजर आता है.
वहीं विकास के मामले में लालू-राबड़ी के शासनकाल में इनके पैतृक गांव फुलवरिया और ससुराल में धुआंधार विकास हुआ. विकास का पैमाना इसी से लगाया जा सकता है कि लालू की मां मरछिया देवी की प्रतिमा मीरंगज और फुलवारिया में सिर्फ इसलिए स्थापित किया गया है कि उन्होंने लालू जैसे सामाजिक न्याय के पुरोधा को जन्म दिया था.
धार्मिक रूप से भी सारण की पहचान अप्रतिम है. भगवान शंकर और विष्णु के अनुयायियों के मिलन स्थल के रूप में हरिहर क्षेत्र सोनपुर, सती स्थल के लिए आमी, सिद्घपीठ के लिए थावे भवानी और इसके साथ ही बौद्घ सम्प्रदाय के लिए भगवान बुद्घ से भावयोगनी का जंगल और हस्तीग्राम (अब हाथीखाल, बथुआ, गोपालगंज) जुड़ा हुआ है. ऐसा कहा जाता है कि गौतम बुद्घ जब कुशीनगर के लिए जा रहे थे तो उनका ठहराव भावयोगनी के जंगल और हस्तीग्राम में हुआ था. हस्तीग्राम में आज भगवान बुद्घ का मंदिर स्थापित है. मगर बिहार में पर्यटन के विकास के लिए बनाये गये बौद्घ सर्किट से इन जगहों को नही जोड़ा गया है.
कालांतर में यहां राजनीति में अपराध का खूब बोलबाला रहा है. एक के बाद एक राजनीतिक हत्या एवं वर्चस्व की लड़ाई हुई. इन राजनीतिक हत्याओं में न जाने कितनी लाशें गिरीं. कभी जाति के नाम पर तो कभी जमात के नाम पर, कभी दल के नाम पर कभी चुनाव के नाम पर बंदूकें तनी और जानें गईं. मसरख के अशोक सिंह की हत्या हुई. सीवान में जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर की हत्या हुई. गोपालगंज में अपराध का खूनी खेल खूब खेला गया. दो जातियों के आपसी वर्चस्व की लड़ाई में नगीना राय की जान गई और एक के बाद एक अपराधी पैदा हुए. जिनमें से कई तो ईनामी और कई पर तो ईनामी राशि पांच लाख रुपये तक की थी. बहरहाल, इन तमाम बातों का लब्बोलुआब ये है कि सारण की भूमि तो काफी उर्वरा है, लेकिन सबका दर्द एक ही है- उपेक्षा.
-जय प्रकाश मिश्र
आज,पटना, द संडे इंडियन, महुआ न्यूज चैनल, हिंदुस्तान, दिल्ली में बतौर संवाददाता काम किए हैं। प्रिंट और इलेक्टॉनिक मीडिया दोनों माध्यम में अपनी स्थान रखने वाले पत्रकार हैं। फिलहाल इंडिया स्पीक में संपादन और जिंदगी फाउंडेशन जुड़े हैं।