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पूर्व सांसद शहाबुद्दीन का दिल्ली में हुवा निधन, शोक का माहौल

मौत एक कठिन हकीकत है जो भी इस दुनिया में आया है, उसे एक दिन इस दुनिया से जाना पड़ेगा। लेकिन कुछ इंसान ऐसे होते हैं जिनके चले जाने का गम हमेशा सताता रहता है। सैयद शहाबुद्दीन (Syed Shahabuddin) का निधन (Death) भी देशवासियों के लिए ऐसा ही दर्द है। सैयद शहाबुद्दीन की शख्सियत कुछ इस तरह की थी जिससे इनके विरोधी भी जिक्र इज्जत से करते थे।

शहाबुद्दीन छात्र जीवन से ही सियासी और सामाजिक मुद्दों को लेकर आवाज उठाते रहे हैं लेकिन उन्हें अपनी जिंदगी के सफर में हर मोड़ पर जिस चीज की सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी वह उनकी बेबाकी थी। शहाबुद्दीन का जुनून ऐसा था कि बिना अंजाम की परवाह किए लड़ जाते थे और इसकी नींव छात्र जीवन में पड़ गई है। तभी तो नेहरू ने उन्हें बिहार का नॉटी बॉय कहा था। एमएसी तक हर जगह गोल्ड मेडिलिस्ट रहे शहाबुद्दीन ने 1955 में पटना में छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया है और इसी वजह से उनका आईएफएस में ज्वाइन करना नामुमकिन सा हो गया था। एक साल तक उन्हें ज्वाइन नहीं कराया गया।

कैसे आए राजनीति में

आम लोगों में यही राय है कि शहाबुद्दीन को तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सियासत स्पॉंन्सर की है। लेकिन खुद शहाबुद्दीन इससे इन्कार करते हैं। ऑउटस्टेंडिंग वॉयस ऑफ मुस्लिम इंडिया में खुद शहाबुद्दीन लिखते हैं कि वाजपेयी से उनके रिश्ते बहुत ही मधुर थे, लेकिन वाजपेयी ने उन्हें तीन बार इस्तीफा वापस लेने के लिए समझाया। राजनीति में आने का फैसला उनका खुद का था। नौकरी से इस्तीफे देने के बाद दिल्ली के बजाए पटना को अपना ठिकाना बनया और यहीं से सियासत की शुरुआत की।

बाबरी मस्जिद और शहाबुद्दीन

जिस वजह से वह सबसे ज्यादा याद किए जाएंगे या कोसे जाएंगे उनमें से एक है बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्म भूमि आंदोलन। इस आंदोलन के दौरान उनके नेतृत्व का मुद्दा सबसे अहम रहा।

जब 80 के आखिरी दशक और 90 के शुरुआती दशक में जय श्री राम जैसे धार्मिक नारे की गूंज से मुसलमान के घरों, मुहल्ले और बस्तियों में खौफ और सन्नाटा फैल जाता था तब शहाबुद्दीन मुसलमानों के सबसे बड़े मसीहा थे। उस नफरत, खौफ और मायूसी के दौर में जब सब जुबानें शांत थीं हालांकि, उस दौर के उनके सियासी अंदाज को लेकर उनके चाहने वाले भी सवाल उठाते हैं। उनकी बेबाकी, उनके जोश, और जुनून को कदघरे में खड़ा करते हैं। लेकिन यही हकीकत भी है कि उनकी ईमानदारी और उनके इरादे पर फिदा हो जाते हैं और यहां तक कहते हैं कि मुसलमानों की तरक्की को लकेर उनमें मौलाना आजाद जैसी तदबीर और अल्लमा इकबाल जैसी तड़प थी।

बाबरी मस्जिद आंदोलन के दौरान शहाबुद्दीन की लड़ाई सरकार से तो थी ही लेकिन उस वक्त के शाही इमाम अब्दुल्लाह बुखारी से भी उनकी खूब जंग रही है। लेकिन जब 2008 में शाही इमाम के निधन पर शहाबुद्दीन से इस वाक्य पर पूछा तो उनका कहना था कि इमाम साहिब से उनके रिश्ते अच्छे थे, लेकिन वो इस बात के खिलाफ थे कि मस्जिद के मेंबर को सियासत का अड्डा नहीं बनाया जाए।

विरोधी भी करते हैं सलाम

शहाबुद्दीन के कलम के सभी कायल थे। जब कुछ साल पहले उन्होंने अपनी मैगजीन मुस्लिम इंडिया को बंद करने का एलान किया तो उनके विरोधी विचारधारा के लेखक सुधेंद्र कुलकर्णी ने लेख लिखकर उनकी काबलियत को सलाम किया था।

कहा जाता है कि बाल ठाकरे के घर में शहाबुद्दीन की तस्वीरें लगी होती थीं क्योंकि बाल ठाकरे का कहना था कि शहाबुद्दीन के भड़काऊ बोल ने उनकी सियासत को आसान कर दिया है। इसी तरह कई पार्टियों में जाने और खुद की इंसाफ पार्टी बनाने को लेकर मुसलमानों के भीतर उनके नेतृत्व पर सवाल उठते रहे हैं।

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