मध्य प्रदेश में 123 दिनों में कुपोषण की वजह से 10 हजार से ज्यादा बच्चों की मौत
देश के विकास की गाड़ी इतनी तेज गति से चल रही है कि इसके सवारों को यह नहीं दिख रहा है कि इस गाड़ी के नीचे कितने लोग रौंदे जा रहे हैं!
जब पूरा देश नोटबंदी और उससे उपजी समस्या पर बहस में उलझा हुआ है, मध्य प्रदेश में करीब चार महीने में दस हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई. क्या यह आंकड़ा आपको दहला देने के लिए नाकाफी है?
समाचार एजेंसी आईएएनएस की एक खबर के मुताबिक, भाजपा शासित मध्य प्रदेश में 123 दिनों में 10 हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हुई है. मध्य प्रदेश विधानसभा में शुक्रवार को स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह ने एक लिखित जवाब में कहा, ‘चार माह अर्थात 123 दिनों में 10 हजार 171 बच्चों की मौत हुई है. मौत की वजह निमोनिया, डायरिया, बुखार, मीजल्स व अन्य कारण भी है.’
मंत्री रुस्तम सिंह ने अपने जवाब में जुलाई से अक्टूबर तक का ब्यौरा दिया है. उन्होंने यह जवाब कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में दिया. विधायक रावत ने स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह से पूछा था कि राज्य में जुलाई से अब तक बीमारियों के कारण छह से कम और छह से 12 वर्ष तक के कितने बच्चों की मौत हुई है? मौत का कारण कौन सी बीमारी थी?
सरकार की ओर से दिए गए जवाब से साफ होता है कि राज्य में प्रतिदिन 82 बच्चों की मौत हो रही है. हालांकि, भारत के लिए यह आंकड़ा कोई नया नहीं है. लेकिन यह ऐसा सामान्य मसला समझा जाता है जिस पर कभी चर्चा नहीं होती.
बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ ने जुलाई, 2015 में एक कार्यशाला में बताया था कि अकेले मध्य प्रदेश में डायरिया जैसी बीमारियों से हर साल 28 हजार बच्चों की मौत हो जाती है.
हर साल दस लाख बच्चों की मौत
जनवरी, 2015 में यूनिसेफ ने रिपोर्ट दी कि पूरे भारत में पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण से मर जाते हैं. दक्षिण एशिया में भारत का रिकॉर्ड इस मामले में सबसे खराब है क्योंकि सबसे ज्यादा कुपोषण यहीं हैं और सबसे ज्यादा मौतें भी यहीं होती हैं. यूनिसेफ के कर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग थी कि भारत में कुपोषण को मेडिकल इमरर्जेंसी करार दिया जाए.
इन मौतों को देखते हुए वाकई मेडिकल इमरजेंसी की घोषणा करते हुए सरकार को ये मौतें रोकनी चाहिए. भारत में आज भी कुपोषण महामारी जैसी समस्या है. अफसोस है कि इन मसलों पर कभी भी न तो चर्चा होती है, न ही इस दिशा में कोई उल्लेखनीय काम होता है. एक देश अपने दस लाख बच्चों की मौत का बोझ कब तक ढोएगा?