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आज ही के दिन 1 अगस्त 1920 को गांधीजी ने राष्ट्रीय स्तर पर रखी थी आजादी की नींव

1 अगस्त 1920 को शुरू हुए इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार की जड़ को हिला कर रख दिया था। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाला यह पहला आंदोलन था। क्योंकि इससे पहले ब्रिटीश सरकार के खिलाफ जितने भी आंदोलन चलाए गये थे वो सभी देश के किसी एक हिस्से तक ही सीमित रहे थे। लेकिन असहयोग आंदोलन ऐसा था जिसमें देश के सभी लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और इस आंदोलन को इतना बड़ा रुप दिया।

असहयोग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे गांधी जी ने उस समय यही सोचा था कि असहयोग को खिलाफत आंदोलन के साथ मिला देने से भारत के दो बड़े समुदाय हिन्दू और मुसलमान मिलकर अंग्रेजी हुकूमत को खत्म कर देंगे। बेशक इन आंदोलनों ने देश के लोगों में एक अलग देशप्रेम और उत्साह भर दिया था और ये चीजें गुलामी के भारत में बिल्कुल नई और अलग थी। इस समय छात्रों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया था। कई गांव और शहरों में काम करने वालें लोगों ने हड़ताल शुरु कर दी।

सरकारी जानकारी के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख मजदूर शामिल थे और इससे 70 लाख दिनों के काम को नुकसान हुआ था।। पहाड़ी जनजातियों ने जंगलों के कानूनों का विरोध किया। अवध के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने अंग्रेजी अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। किसानों, मजदूरों और बाकी लोगों ने इसको अपने तरीके से देखा और हुकूमत की सरकार के साथ ‘असहयोग’ करने के लिए उन्होंने ऊपर से मिले ऑर्डर को मानने के बजाय अपनी मर्जी के तरीकों का इस्तेमाल किया।

महात्मा गाँधी के जीवन पर लिखने वाली लुई फिशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम है। असहयोग शांति के लिहाज से भले ही नकारात्मक था लेकिन इसका असर उतना ही सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन जरुरी थे। यह खुद शासन करने लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के दौरान ऐसा हुआ जब अंग्रेजी सरकार की नींव हिल गई थी।

असहोग आंदोलन का असर इतना गहार हुआ कि उस समय ब्रिटीश सरकार समझौते के लिए भी मान गयी थी। लेकिन 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले के चौरी चौरा जगह पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके बाद जनता ने गुस्से में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार और 21 सिपाहियों की मौत हो गई। इस घटना से गांधी जी बहुत परेशान और दुखी हुए। 12 फरवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के फैसले के बारे में गांधी जी ने यंग इण्डिया में लिखा था कि, “आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।” तब यह आंदोलन वापस ले लिया गया जिसके बाद गांधीजी ने सिर्फ शांतिपूर्ण तरीकों पर ही जोर दिया।

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