पटनाबिहार

एक सौ ग्यारह साल का रिक्शा खीचता बुजुर्ग या नौजवान

बिहार की तारीखें गवाह है अपनी जिद्द और ज़ुनून के ख़ातिर महज एक छोटी सी हथौड़ी और छेनी से पहाड़ का सीना तोड़ कर रास्ता बना दिया इंसान ने। ठीक ऐसे ही ज़ुनून और जिद्द ख़ातिर एक शख़्स राजधानी में 1954 से रिक्शा चला रहा है। इस जुनूनी शख्स का दावा है कि इसकी उम्र 111 साल है। सवाल उठता है आखिर क्या है इस शख्स का ज़ुनून ? अव्वल तो वर्त्तमान हालत में कोई व्यक्ति इतनी उम्र तक जीवित नहीं रहता और जो है भी वो शरीर से लाचार और बीमार है। आखिर इस संघर्ष के पीछे वो कौन सी ताकत जो इस बुजुर्ग नौजवान को रिक्शा खिंचने की शक्ति देती है। उम्र के इस पड़ाव में आम आदमी ईश्वर की आराधना कर अपना परलोक सुधारने की कवायद करता है। पर यह शख्स अपने ज़ुनून और ख्वाब को हक़ीक़त में बदलने को संघर्ष कर रहा है।आखिर क्या है इस इंसान का ख़्वाब जिसके ज़ुनून ख़ातिर ये अब भी पूरी शिद्दत से भिड़ा हुआ है।

आइये आप का तारुफ़ कराते है महेंद्र यादव से। बकौल महेंद्र सन 1904 में इनका जन्म यूपी के गाजीपुर में हुआ। बेहद गरीब परिवार में जन्मे महेंद्र को बचपन से ही काम करने की आदत है। सन्1954 में पटना आने से पहले महेंद्र कलकत्ता वर्तमान कोलकाता में सरसो तेल पिराई का काम करते थे। पटना आने पर इन्होंने अपनी जमापूंजी से महज 200 रूपये में एक रिक्शा खरीदा। तब से लेकर आजतक इनकी पूरी जिंदगी का दारोमदार इन तीन पहियों पर ही टीका है। राजधानी पटना ने इनकी आखों के सामने कई रंग बदले पर नहीं बदला तो महेंद्र यादव का ज़ुनून और खुद्दारी भरा रवैया।

वर्तमान में पिछले कई सालो से शहर के बड़े अस्पताल आईजीआईएमएस परिसर इनका पता ठिकाना है। अस्पताल गेट से अस्पताल के वार्ड तक ये अपने रिक्शे से मरीज़ो और उनके तीमारदारों को लाते लेजातेे है। इनकी बुजुर्गियत को देख कर कई बार लोगों ने इनकी हज़ार पांच सौ रूपये देकर मदद करने की कोशिश की है। वही कई बार भाड़े से ज्यादा भी देने की कोशिश की गई पर इस खुद्दार और धुन के पक्के शख्स ने पूरी विनम्रता से मदद के लिए बढे हाथो को मना कर दिया। महेंद्र के मददगार व्यवहार और खुद्दारी की कई कहानिया यहाँ के स्थानीय दुकानदार सुनाते है। अपने ज़ुनून ख़ातिर हाड तोड़ मेहनत करते हुए भी इनकी आखों में अजीब सा उत्साह कायम रहता है।अस्पताल गेट से वार्ड तक गरीब मरीज़ो को मुफ़्त में पहुचाने से भी नहीं हिचकीचाते है महेंद्र।

अपने ज़ुनून को जीता ये शख्स कभी भी अपने लक्ष्य से डगमगाया नहीं। रिक्शा खीचते हुए भी अपनी खुद्दारी कायम रखी किसी से न उधार लिया न कभी किसी से मुफ़्त में एक चाय तक पी है। ये रिक्शा चलाता बुजुर्ग नौजवान ऐसा भी नहीं की बिलकुल फक्कड़ और गरीब है। गर ये चाहते तो अपनी सुख सुविधा के लिए तमाम इंतजामात कर बहुत ही सुख चैन से अपनी ज़िन्दगी बसर कर सकते है। लेकिन महेंद्र ने अपने ज़ुनून और ज़िद्द ख़ातिर संघर्ष की कठिन राह को स्वीकार किया और संघर्ष अब भी जारी है।

राजधानी पटना के बेउर इलाके में 7 कट्ठा जमीन के मालिक है महेंद्र यादव। ये ज़मीन इन्होंने पौने दो सौ रूपये में साल 1956 में खरीदी थी। वर्त्तमान में ज़मीन के इस टुकड़े की कीमत करोड़ों रूपये हैं। ऐसा भी नहीं की इनके परिजन है जिनके भविष्य ख़ातिर ये जायदाद सजो रहे है। महेंद्र का सगे सम्बन्धियों के नाम पर कोई नहीं। न तो परिवार न कोई जिम्मेदारी फिर भी संघर्ष की इतनी लंबी दास्ता आखिर क्यों ? बस एक जिद।

महेंद्र कहते हैं कि बहुत से लोगों ने उन्हें अपने घर पर बतौर परिजन रखने की बात कही मगर वो नहीं रहे। क्योकि की उन मदद को उठते हाथो की आखों ने उनके इस सहृदयता की पोल खोल कर रख दी। ये लोग महेंद्र को नहीं बेशकीमती ज़मीन के उस टुकड़े ख़ातिर उन्हें अपने पास और साथ रखना चाहते हैं। ये कड़वा सच महेंद्र भी जानते है और बातचीत में स्वीकारते भी है।

इसी ज़मीन से जुड़ा वो जूनून है जो महेंद्र यादव को अदम्य ताकत देता है। महेंद्र स्वयं अनपढ़ है। पर शिक्षा के महत्त्व को स्वीकारते है। महेंद्र के जीवन की उपलब्धि कह ले या जमापूंजी बेउर स्थित 7 कट्ठे का प्लाट है। इसे भी वो समाज ख़ातिर छोड़ चुके है। इस ज़मीन पर महेंद्र की चाहत है कि एक मंदिर और एक स्कूल बने जहा गरीब बच्चे पढ़ सके।

कई प्रयास के बावजूद महेंद्र सफल नहीं हो सके है। हो सकता है की अपने ज़ुनून को महेंद्र पूरा न कर पाये या पूरा करने में कामयाब भी हो जाए पर उनके ज़ुनून की हद देखिये 111 साल में भी एक बुजुर्ग नौजवान की तरह अपने लक्ष्य को पाने के ख़ातिर पूरी शिद्दत से कोशिश कर रहे है। महेंद्र के उत्साह को देखकर यही कहा जा सकता है कि ज़ुनून अगर सच्चा हो तो पूरी कायनात भी पूरी शिद्दत से आपकी मदद करती है। तभी तो एक सौ ग्यारह साल का बुजुर्ग नौजवान की तरह पूरी लगन से मेहनत कर रहा है।

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