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ग़ालिब की याद में: कभी आना तो मेरी गली…

सबसे मशहूर इस उर्दू शायर का लिखा हर एक लफ्ज खुद में दर्द का दरिया समेटे हुए है. दुनिया उन्हें मिर्जा गालिब के नाम से जानती है. आज उनकी 217वीं जयंती है.

उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ और उनका पूरा नाम मिर्जा असदउल्ला बेग खान गालिब था.

गालिब के जन्मदिन के मौके पर हम आपको लिए चलते हैं दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में उनकी पुश्तैनी हवेली पर. तस्वीरों के जरिए हम आपको गालिब की विरासत दिखाएंगे और गालिब के कुछ मशहूर शेर से रू-ब-रू कराएंगे.

 उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है…

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आगरा से दिल्ली आने के बाद गालिब इसी हवेली में रहे. अब ये म्यूजियम में तब्दील हो चुका है और सबके लिए मुफ्त है.

 रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए

धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

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गालिब के कुल 11802 शेर जमा किये जा सके हैं उनके खतों की तादाद तकरीबन 800 के करीब थी.

 हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले…

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इश्क की इबादत हो या खुदा से शिकायत, नफरत हो या दुश्मनों से मोहब्बत, गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द छलक जाता है.

 हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त

लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है…

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क बार का वाकया है कि गालिब उधार में ली शराब का कर्ज नहीं उतार सके. दुकानदारों ने उनपर मुकदमा कर दिया, अदालत में सुनवाई हुई और सुनवाई के दौरान ही गालिब ने सबके सामने ये शेर पढ़ दिया…

कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,

रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन

ये शेर सुनते ही अदालत ने उनका कर्जा माफ कर दिया.

 काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब

शर्म तुम को मगर नहीं आती…

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मिर्जा गालिब पर कुछ उपलब्ध किताबों के नाम ‘‘दीवान-ए-गालिब’’, ’’मैखाना-ए-आरजू’’, पंच अहग, मेहरे नीमरोज, कादिरनामा, दस्तंबो, काते बुरहान, कुल्लियात-ए-नजर फारसी व शमशीर तेजतर हैं.

 रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था…

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जब‍ गालिब के पास पैसे नहीं होते थे, तो वह हफ्तों कमरे में बंद रहते थे. उन्‍हें डर होता था कि अगर टैक्‍स नहीं भरा तो दरोगा पकड़कर ले जाएगा.

 दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है…

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गालिब के जन्मदिन से पहले म्यूजियम का मुआयना करते साहित्य कला परिषद के अधिकारी.

 अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न

बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले…

गालिब की सात संतानें हुईं, पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी. उनकी शायरी में गम का ये कतरा भी घुलता रहा.

शहादत थी मिरी किस्मत में,

जो दी थी यह खू मुझको जहां तलवार को देखा,

झुका देता था गर्दन को.

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतश ग़ालिब

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने...

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ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे

देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे…

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